रंगमंच पर कठपुतलियों का कमाल
रंगमंच पर कठपुतलियों का कमाल
ऑस्ट्रिया में सजग होइए! लेखक द्वारा
“वाह, क्या संगीत था! मगर उससे भी लाजवाब कठपुतलियों का खेल था। उन कठपुतलियों ने इतनी सफाई से छोटे-से-छोटे हाव-भाव किए कि बस पूछो मत। मैंने आज तक ऐसा खेल कभी नहीं देखा!”
जिस स्त्री ने यह बात कही, क्या वह नन्हे-मुन्नों को दिखाए जानेवाले कठपुतलियों के खेल की बात कर रही थी? जी नहीं। आपको शायद यह यकीन करना मुश्किल लगे, लेकिन यह स्त्री बड़ों के लिए तैयार किए गए कठपुतलियों के ओपेरा (संगीत-नाटक) की बात कर रही थी। यह अनोखा ओपेरा कहाँ पेश किया जाता है? ऑस्ट्रिया के ज़ाल्ट्सबुर्क शहर के एक बहुत ही अजब ओपेरा हाउस (संगीत-नाट्यशाला) में। यह वही शहर है जहाँ दुनिया के सबसे मशहूर संगीतकार, मोज़ार्ट का जन्म हुआ था।
लेकिन क्या आपने कभी मारियोनेत यानी लकड़ी की बनी कठपुतलियों के बारे में सुना है, जो करीब दो-तीन फुट लंबी होती हैं और ओपेरा पेश करती हैं? ‘ज़ाल्ट्सबुर्क मारियोनेत थिएटर’ में इसी तरह की कठपुतलियों के नाटक पेश किए जाते हैं। जब वे मंच पर थिरकना शुरू करती हैं, तो दर्शकों पर एक तरह का जादू चल जाता है। दर्शक, हकीकत की दुनिया से निकलकर ख्वाबों की दुनिया में पहुँच जाते हैं और मन को मोह लेनेवाले संगीत में पूरी तरह खो जाते हैं।
हकीकत और ख्वाबों की दुनिया का ताना-बाना
जैसे ही संगीत शुरू होता है और मंच पर से परदा उठता है, तो दर्शक कभी-कभी शुरू का नज़ारा देखते ही चौंक जाते हैं। जब वे कठपुतलियों को मुँह हिलाते हुए मंच पर आते देखते हैं, मानो वे कोई गाना गाते हुए आ रही हों, तो वे सोच में पड़ जाते
हैं कि क्या ये वाकई लकड़ी की बनी हैं। यही नहीं, वे हर कठपुतली को कई पतली-पतली डोरों से बँधा देखकर भी हैरत में पड़ जाते हैं। कुछ दर्शक शायद बहुत निराश हो जाएँ और कहें: ‘ये क्या, हमें तो सारी डोरें नज़र आ रही हैं!’ और-तो-और, वे शायद यह भी सोचें कि ओपेरा के सारे साज़िंदा कहाँ हैं, उन्हें तो स्टेज के सामने के खाने में होना चाहिए था? पहले से रिकॉर्ड किया गया ओपेरा संगीत सुनने की बात, शायद लोगों को रास न आए। यही नहीं, जो लोग अकसर ओपेरा देखने जाते हैं, वे शायद खीझते हुए बोलें: ‘ये कैसा बकवास है!’ लेकिन रुकिए! ज़रा देखिए तो सही, दर्शकों के चेहरे का रंग कैसे धीरे-धीरे बदल रहा है और इस बात का खुद उन्हें होश तक नहीं।जी हाँ, शुरू-शुरू में कुछ दर्शक नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं, तो कुछ का निराशा से मुँह लटक जाता हैं। मगर एक बार जब वे अपनी इन भावनाओं पर काबू पा लेते हैं, तो उन पर कठपुतलियों का जादू चलने लगता है। इसी मुकाम पर हकीकत और ख्वाबों की दुनिया का एक मज़ेदार ताना-बाना बुनना शुरू हो जाता है। जिन रेशम की डोरों से ये कठपुतलियाँ चलती-फिरती हैं, उन पर से अब दर्शकों का ध्यान हट जाता है। वे न सिर्फ कठपुतलियों के तमाशे से, बल्कि इस अनोखे विचार से भी रोमांचित हो उठते हैं कि एक छोटे-से ओपेरा हाउस में कठपुतलियाँ ओपेरा पेश कर रही हैं। मगर अब उन्हें यह बात बेतुकी-सी नहीं लगती। और वे जल्द ही यह भी भूल जाते हैं कि वे दरअसल बेजान कठपुतलियों को नाचते-गाते देख रहे हैं। जी हाँ, इन कठपुतलियों में इतने गज़ब की काबिलीयत होती है कि ये नुक्स निकालनेवालों के भी होश उड़ा देती हैं और उन्हें अपनी छोटी-सी दुनिया में खींच लाती हैं।
मंच पर और परदे के पीछे
परदे के पीछे का नज़ारा उतना ही मज़ेदार होता है, जितना कि मंच पर। देखा जाए, तो असली कलाकार वे होते हैं जो परदे के पीछे, या यूँ कहिए, जो मंच के ऊपर रहकर इन कठपुतलियों को नचाते हैं। स्टेज से काफी ऊपर एक पुल बना होता है, जिस पर कलाकार खड़े होकर कठपुतलियाँ नचाते हैं। जब कठपुतली चलानेवाले अपनी उँगलियाँ नचाते हैं, तो ऐसा लगता है मानो वे किसी से इशारों में बात कर रहे हों। जबकि उनके इसी तरह डोर खींचने की वजह से नीचे मंच पर कठपुतलियाँ गातीं, रोतीं, आपस में लड़तीं या बड़ी अदा से सिर झुकाकर सलाम करती हैं—ठीक जैसे असल ओपेरा के कलाकार करते हैं।
द न्यू यॉर्क टाइम्स अखबार में एक बार यह बताया गया था कि आखिर, कौन-सी बात इस नाटक को इतना दिलचस्प बनाती है। उसमें लिखा था: “परदे के पीछे काम कर रहे लोगों को किसी भी उम्र और लिंग के किरदार निभाने की आज़ादी है; मगर एक चीज़ है, जो उनमें कूट-कूटकर भरी होनी
चाहिए। वह है, हुनर।” और ज़ाल्ट्सबुर्क के कठपुतली चलानेवाले जिस हुनर के साथ अपनी कठपुतलियों में जान डालते हैं, उनकी जितनी तारीफ की जाए कम है।बेजान मूर्तियों के बजाय कठपुतलियाँ
सन् 1913 में ‘ज़ाल्ट्सबुर्क मारियोनेत थिएटर’ में पहली बार मोज़ार्ट का रचा ओपेरा पेश किया गया था। तब से लेकर आज तक, यानी 90 से भी ज़्यादा सालों से यह रंगमंच काफी मशहूर रहा है। इस रंगमंच की शुरूआत आनटोन आइक्खा ने की थी। आइक्खा एक शिल्पकार था। उसने मूर्तियाँ बनाने की कला, म्यूनिक के एक शिल्पकार से सीखी थी। इसके बाद, वह लकड़ी की कठपुतलियाँ बनाने लगा, जो हू-ब-हू असल लोगों की तरह हाव-भाव कर सकती थीं। जल्द ही उसे एहसास हुआ कि बेजान मूर्तियों से ज़्यादा मज़ेदार काम लकड़ी की कठपुतलियाँ बनाना है।
देखते-ही-देखते, आइक्खा के घरवाले भी इस किस्म के मनोरंजन में दिलचस्पी लेने लगे। वे बड़े उत्साह के साथ कठपुतलियों के लिए कपड़े सिलने, उन्हें नचाने, गवाने और उनसे डायलॉग बुलवाने में आइक्खा का हाथ बँटाने लगे। उन्हें इससे इतनी कामयाबी मिली कि देखते-ही-देखते वे और भी ज़्यादा संगीत के कार्यक्रम पेश करने लगे। यहाँ तक कि सन् 1972 से उन्हें दूसरे देशों में भी कठपुतलियों का खेल दिखाने के लिए न्यौते मिलने लगे। इन दिनों, ये खेल जापान और अमरीका जैसे कई देशों में नियमित तौर पर दिखाए जाते हैं। दरअसल, सभी संस्कृति के लोग कठपुतलियों का खेल देखना पसंद करते हैं।
क्या आप इस किस्म के मनोरंजन का आनंद उठाना चाहेंगे?
ओपेरा का मतलब है, “एक ऐसा नाटक जिसमें गायक-गायिका वेशभूषा पहने किरदार निभाते हैं और डायलॉग बोलने के बजाय गाना गाते हैं। साथ ही, पीछे संगीत बजता रहता है।” (द कनसाइज़ ऑक्सफर्ड डिक्शनरी ऑफ म्यूज़िक) ओपेरा के बोल (लिब्रेटो) पौराणिक कथाओं, इतिहास, बाइबल की कहानियों और मन-गढ़ंत अफसानों पर आधारित होते हैं। वे दर्द-भरे या हास्य हो सकते हैं, या फिर प्यार-मुहब्बत के बारे में हो सकते हैं। ज़ाल्ट्सबुर्क शहर के इस थिएटर में कठपुतलियों के जो ओपेरा पेश किए जाते हैं, वे आम तौर पर जर्मन या इतालवी भाषा में होते हैं। इसलिए अच्छा होगा, अगर आप ओपेरा में जाने से पहले उसके सारांश का किया गया अनुवाद पढ़ लें। इससे आप जान पाएँगे कि आपको वह ओपेरा पसंद आएगा भी कि नहीं।
मगर एक मसीही कैसे तय कर सकता है कि उसके लिए फलाँ ओपेरा देखना सही होगा या नहीं? क्या उसे यह फैसला सिर्फ इस बिना पर करना चाहिए कि ओपेरा में जाने-माने गायक-गायिका हैं? या इस बिना पर कि इसका संगीत कानों में मिस्री घोलता है? या फिर उस कहानी की बिना पर, जिस पर आधारित ओपेरा के बोल लिखे गए हैं?
बेशक, एक मसीही जिस तरह दूसरे मनोरंजन का चुनाव करता है, वही तरीका उसे ओपेरा का चुनाव करने में भी इस्तेमाल करना चाहिए। यानी, फलाँ ओपेरा सुनना या देखना चाहिए या नहीं, यह तय करने के लिए उसे उस ओपेरा के सारांश की तुलना, प्रेरित पौलुस की कही इस बात के साथ करनी चाहिए: “निदान, हे भाइयो, जो जो बातें सत्य हैं, और जो जो बातें आदरनीय हैं, और जो जो बातें उचित हैं, और जो जो बातें पवित्र हैं, और जो जो बातें सुहावनी हैं, और जो जो बातें मनभावनी हैं, निदान, जो जो सद्गुण और प्रशंसा की बातें हैं उन्हीं पर ध्यान लगाया करो।”—फिलिप्पियों 4:8. (g 1/08)
[पेज 8 पर नक्शा]
(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)
ऑस्ट्रिया
विएना
ज़ाल्ट्सबुर्क
[पेज 8 पर तसवीर]
ये सभी कठपुतलियाँ, अलग-अलग किस्म के ओपेरा में अपनी भूमिका अदा करने के लिए तैयार हैं
[पेज 9 पर तसवीर]
ज़ाल्ट्सबुर्क मारियोनेत थिएटर
[पेज 10 पर तसवीर]
आनटोन आइक्खा, जिसने कठपुतलियों के ओपेरा की शुरूआत की
[चित्र का श्रेय]
By courtesy of the Salzburg Marionette Theatre
[पेज 8 पर चित्र का श्रेय]
पेज 8 और 9 पर दी सारी तसवीरें: By courtesy of the Salzburg Marionette Theatre